– द्वारा अम्बुज पाण्डे
याद है तुम्हें
हम दोनो अकसर शाम के वक्त समंदर के तट पर मिला करते थे
और किनारे के पानी में खड़े होकर, एक दूसरे का हाथ थामे, आंखें मूंद लिया करते थे ।
हर लहर के साथ पांवों के नीचे की रेत खिसकती रहती
और हमे लगता कि जैसे हम जहाज पर हिलोरे खाते शून्य की ओर बढ़ रहे हों
चांद का गुरुत्व स्वतः ही खींचे लिये जा रहा हो ।
तुम अकसर डर जाया करती और आंखें खोलने की बात कहती –
कही हम रेत में धस तो नही जा रहे ?
क्या तुम्हे मुझ पर भरोसा नही है ?
बिल्कुल भी नही ।
पर फिर भी तुम आंखें नही खोलती
उस उन्माद, उस भ्रम को हम दोनों ही खोना नही चाहते थे
लहरों की लयबद्ध ध्वनि हम में एक ऐसा सामंजस्य पैदा कर देती,
जैसे किसी तानपुरे की तान से झंकृत होकर हम उपसमाधि की ओर बढ़ रहे हों ।
पर तुम्हे मालूम है, मै आंख खोला करता था, बीच बीच में
यह देखने के लिये नही कि हम कितने पानी में आ चुके है
केवल तुम्हे देखने के लिये, शफ़क़ चांदनी में ।
फिर किसी रोज़ एक तेज़ झोंके की लहर आयी
और हाथ छूट गये
रात अमावस की थी
हम किनारे से काफी आगे आ चुके थे
मैने बहुत ढूंढा तुम्हे
न तुम मिली न इससे वापस आने का रास्ता
मै खोता चला गया
आकर देखो तो कभी
मै शून्य तक पहुच चुका हूं,
बहुत सन्नाटा है यहां ।।